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Amavas ( अमावस )

अमावस  ए अमावस ! क्यों उदास होता है ?  वो हसीं चाँद को रात का आराम भी तू ही देता है।  ज़िन्दगी मे छोटी छोटी खुशिया अहम् है।  तू ना होता तो इन् तारो की किमत ही क्या थी ? दूसरे की चमक को बढ़ावा देना इतना आसान नहीं।  तेरे साथ दिवाली युही नहीं मानते।  देख तेरा खुमार चाँद पर कितना छाया।  पहले १५ दिन तुझसे बिछड़ने की यादमे, और फिर १५ तुझसे मिलने की आस में मरता है।  तेरा प्यार समझना मुश्किल है।  ईद के चाँद का दिदार इतना हँसी युही नहीं होता।  - संकेत अशोक थानवी ॥ १५/१२/१६ ॥

Vartalaap(वार्तालाप)

वार्तालाप  अ : क्यों दिखता नहीं तुझे अपनी खुदकी ज़िन्दगी के पार।  कही स्वार्थ से जुड़े तो नहीं इसके तार।  नादानी , प्यार , दोस्ती और दुश्मनी जैसी बाते है काफी सरल।  मुश्किल बना दिया तूने , खुद्दारी में होके मगन।  खुदकी किताब तुम खुद रंगते हो, इसे सुन्दर बनाना ।  कोई भी धब्बा एक पन्ने पर नहीं रुकता , क्या पता फिर ना मिले पछताने का बहाना।  झरने की आवाज़ , फूल की खुशबू , फल की मिठास ,तारो की टिमटिमाना  और हवा का कोमल स्पर्श , सब सामान है ये।  भेदभाव ना कर किसी में भी , बुद्धि और इंद्र्यियो का क्या सही उपयोग है ये ? सबका भला चाहता हूँ मैं  , इसीलिए शायद परमात्मा।  मेरा ही नाम बेच बेच कर , तूने किया भलाई का खात्मा ।  - संकेत अशोक थानवी ॥११/१०/२०१६  ॥  ब : मेरी मनो तो स्वार्थ से कोई आत्मा न बच पाई।  तुम्हारा स्वार्थ शायद इस दुनिया का भला , मेरा खुदकी कमाई।  ये प्यार आदि को मैं नहीं मानता।  इसी अविश्वास को जग खुद्दारी से जनता। रुकी कलम को चलाने ...

Nazariya (नज़रिया)

नज़रिया इस झुग्गी से मेरे ख्वाबो की इमारतों की सबसे ऊँची मंझिल देख रहा हूँ। डर लगता है साहब , हर एक मंझिल चढ़नेपे थोड़ा और बिक रहा हूँ। क्या होती नहीं जगह अपनेपन की वहा। सब कहते है बोहोत खूबसूरत है , लेकिन होते है खोखलेसे ये महल जहा। राजघरानो से जश्न वहां होते है क्या ? जश्न जो मेरे घर को ख़ुशी ना दे, उस जश्न का अर्थ ही क्या ? फिर भी इच्छा है इस अंदरूनी दानव की वहा जानेकी। ना है उसके पास कोई शर्म, उसे तो ख़ुशी चाहिए इस झुग्गी को उस उंचाईसे छोटा देख पानेकी।  इस मामूली छोटी झुग्गीसे वो उंचाईभी छोटी दिखती है।  ताक़त ऊंचाई में नहीं , नज़रिये में होती है।  -  संकेत अशोक थानवी ॥ २८/०८/२०१६ ॥ 

Khudko zinda bana...(खुदको ज़िंदा बना..)

खुदको ज़िंदा बना इन् झूटी आकांक्षाओं , इन् झूटी अहसासों  को सच समझने वाले।  तेरी ज़िन्दगी का मतलब क्या ? जवाब तेरे पास है नहीं  , मुझे पता है।  ये सिर्फ तेरी  हालत नहीं , दुनियामे शायद ही इससे कोई  बचा है।  याद कर वो सारे अनोखे ख्वाब , जो तूने देखे थे बचपनमे।  बुनता था तू एक नया ख्वाब , हर एक धड़कनमे।  अगर पुछु तुझसे की इसमें दोष किसका है तू काम को दोष देगा।  लेकिन पेट वही भरता है , ये भी तू कहेगा।  हकीकत है ये , गलत नहीं।  लेकिन काम को ज़िन्दगी बनना , ये भी तो सही नहीं।  ज़िन्दगी को बनाओ वो किताब , जिसके हर पन्ने हो नए रंगका।  हर वाक्य हो नयी बात।  एक ऐसी किताब, जिसको आनेवाले अपनाए।  नाकी वो , जिसको सब भूतकालमे दफनाए।  इसकेलिए उस भ्रम के बादल को हटा।  खुदकी किताबमे जरा धूल हटा के , खुदको ज़िंदा बना।  - संकेत अशोक थानवी ॥१५/०७/२०१६ ॥ 

Safar(सफर)

सफर  ये सफर हम दोहरयगे बार बार।  याद करेगी ये आँखे इन् लम्हों को ज़िन्दगी के पार।  सिर्फ उफनती लहरें याद रहती है किसी नदी के बहाओ मे।  हड़बड़ाहट के लम्हे बच जाएंगे हमारी धूल खाती किताब मे।  मिलेंगे तुझे कई उलझे मोड़ रस्ते मे तेरे।  पूछना तो पड़ेगा की किस रास्ते है मेरी मंझिल दोस्त मेरे।  गिने चुने दिन का सफर ,समय ज्यादा नहीं।  सबकुछ करने के बिच बोहत छूट न जाये कही।  बदल जाता है रिश्तों का पैमाना। फिर भी याद रखना सिर्फ एक दूसरे का हसाना।  शांति के लिए बेचैन होने की जरुरत नहीं राह मे।  सफर के मझे लेलो तुम मंझिल के इंतज़ार मे।  - संकेत अशोक थानवी ॥ २६/०३/१६ ॥ 

शाम(Shaam)

शाम मेरे तीन साल के दिन का उजाला घट रहा, अँधेरे के पहले की सुहानी शाम है ये।  इतने लोगो के साथ बिताए अनगिनत लम्हे लिखने की ख़ुशी बहुत है, लेकिन शायद कुछ ज्यादा ही छोटी किताब है ये।  हसना-रोना इकरार-इनकार गपशप-बाते मिलके बनाते है इस कलम की स्याही को, सालो बाद भी ऐसे ही रहेगी जैसे पहले बारिश की सुगंध है ये।  ए तकदीर ! किसी को इतना खुश नाकर की उतना खुश रहने की आदत हो जाए, भिगाकर मुझे जानेवाली समुंदर की लहर है ये।  कुछ कहते की खुले दिमाग से सोचके देखू की है ये मामूली सीधी-साधी बात, मेरे लिए तो खुले हाथो से सीधी लकीर खीचना है ये।  - संकेत अशोक थानवी ॥ ०८/०३/१६॥ 

दलदल(daldal)

दलदल क्यों आ गयी बाढ़ अहसासों की , जहा बंजर था अभीतक।  ये दलदल मे मैं धसा जा रहा हूँ।  जितना झटपटाऊ , उतना खींचा चला जाता हूँ।  सोचता हूँ की अकेला निकल जाऊ इधरसे किसी नाव मे ।  लेकिन बहाओ इन् अहसासों का ही होगा उसमे।  कभी तो इस जगह कमल खिलने की आशा रोक लेती है मुझे।  डर भी है की कमल खिल जाए दूर , और मैं धसके मर जाउगा इस में।  - संकेत अशोक थानवी ॥१९/२/१६॥ 

कहानी (Kahani)

कहानी (Kahani) मेरे ज़िन्दगीकी अमावस की रातमे, मैं भाग रहा खुदसे जैसे बैठा हूँ कोई ट्रैन मे। ज़िंदगी की खिड़कीपे बैठा , देख रहा आसमान को। सिर्फ एक मामूली टिमटिमाता ध्रुवतारा नहीं तुम मेरे लिए, बल्कि सारे तारे जोड़ बनाते है तेरी हस्ती-मुस्कुराती तस्वीर को। येही तो अब बचा है , जो बदलता नहीं समयके साथ कभी। मेरे इस चक्कर खाती जिन्दगीका तुमवो स्थिर बिंदुहो , जिसको देखता हूँ तो चलनेमे डगमगाता नहीं कभी। मेरे ख्वाबोकी तुम हो रानी , और मैं हूँ नवाब। ये अमावस की रात भी हो गयी नूरानी। लिखते वक़्त ये कागज़ जैसे हो तुम्हारा हाथ , और ये कलम एक गुलाब। ये तुम्हारा हाथ लेकर मैं उसपे गुलबसे रंगदु एक कहानी।   -  संकेत अशोक थानवी ॥३०/१२/१५॥ 

बच्चा(Baccha)

बच्चा(Baccha) मोरका पंख देखा है कभी? कितना सुन्दर , कितना नाजुक  और कितना रंगीन।  कुछ ऐसाही था मेरा बचपन।  नहीं पता था क्या होती कमी।  आशाओका था मैं धनी।  नहीं पता था भूक-चोट को छोड़के , क्यों आती थी बड़ो की आखो मे नमी।  क्यों हस रहे हो ? इसका जवाब न होता कभी।  कोई किसेभी डाटे अगर जो घरमे , आता मुझे अपने आखोंका नल बहाना।  मुझे तो नहीं आता था , किसी डरपोक बिल्ली को भी भागाना।  ना थी कोई योग्यता मित्रताकी , गुड्डा-झाड़ू-ऑटो भैया अन्य सब से थी मेरी दोस्ती।  दोस्ती का मतलब नहीं पता था तब , लेकिन नहीं थी आज जैसी किसीसे मतलबी दोस्ती।  अगर एक छोटे बच्चेकी मासूम-मुरतके सांचे मे डालोगे पूरे दुनियाकी शोहरत को पिघलाके , ना भर पाओगे उसके पैरोकी छोटी ऊँगली।  समझ जाओगे वो बच्चा कितना दिव्य, और ये दुनिया कितनी धुंदली।  - संकेत अशोक थानवी ॥२६/१२/२०१५ ॥  

सच (Sach)

सच (Sach) पता है मुझे कुछ राज़ है तुझमे।  उस हंसी के निचे कोई बात है खुदमे।  सच छुपाना , खुदमे छुरी घुसाने बराबर।  छुरी न निकले , तो खुदको खुदही मारने बराबर।  तुम किसी एक को हर एक सच क्यों नहीं बोलते।  बताते क्यों नहीं की तुम किसीपे भी इतना विश्वास नहीं करते।  बोलके देखो मुझे , न करना पड़ेगा कुछ हिम्मत जुटाने के लिए।  एक बात बतादु तुझे ,  मै किसीको गलत समझता नहीं कोई बात बताने के लिए।  बोल्दो जो बोलना है , खुदमे खुदको रोका नहीं जाता।  चुप रहकर क्या बोलोगे तुम , कुण्डी लगाकर दरवाज़ा खोला नहीं जाता।  अजीब लगेगा ये पढ़के तुम्हे , पर हे ये भी सचही।  ये तो सच का छुरा निकल रहा मुझसे , छुरा निकलने वाले तुम्ही।  - संकेत अशोक थानवी ॥१५/१२/२०१५॥