Nazariya (नज़रिया)

नज़रिया


इस झुग्गी से मेरे ख्वाबो की इमारतों की सबसे ऊँची मंझिल देख रहा हूँ।
डर लगता है साहब ,
हर एक मंझिल चढ़नेपे थोड़ा और बिक रहा हूँ।

क्या होती नहीं जगह अपनेपन की वहा।
सब कहते है बोहोत खूबसूरत है ,
लेकिन होते है खोखलेसे ये महल जहा।

राजघरानो से जश्न वहां होते है क्या ?
जश्न जो मेरे घर को ख़ुशी ना दे,
उस जश्न का अर्थ ही क्या ?

फिर भी इच्छा है इस अंदरूनी दानव की वहा जानेकी।
ना है उसके पास कोई शर्म,
उसे तो ख़ुशी चाहिए इस झुग्गी को उस उंचाईसे छोटा देख पानेकी। 

इस मामूली छोटी झुग्गीसे वो उंचाईभी छोटी दिखती है। 
ताक़त ऊंचाई में नहीं ,
नज़रिये में होती है। 

संकेत अशोक थानवी ॥ २८/०८/२०१६ ॥ 

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