Beti...Ye Hain 'Ghar Apna'(बेटी…ये है 'घर अपना')
बेटी…ये है 'घर अपना'
बेटी …
खूब तुम रोना ,
खूब तुम बिखेरना ,
खूब तुम दौड़ना,
खूब तुम चलना,
खूब तुम पढ़ना,
खूब तुम रोना ,
खूब तुम हसना।
हसने और रोनेसे की आवाज़ ही तो,
घर 'लगता' हैं अपना।
घर 'लगता' हैं अपना।
खूब तुम बिखेरना ,
खूब तुम समेटना।
बिखेरने और समेटनेसे ही तो,
घर 'बनता' है अपना।
खूब तुम खाना,
घर 'बनता' है अपना।
खूब तुम खाना,
खूब तुम गिराना।
खाने और गिरानेसे ही तो,
घर 'भरता' है अपना।
खूब तुम दौड़ना,
खूब तुम कूदना।
दौड़ने और कूदनेसे ही तो,
घर 'सजता' है अपना।
खूब तुम चलना,
खूब तुम रुकना।
चलने और रुक्नेसे ही तो,
घर 'आगे बढ़ता' है अपना।
खूब तुम जागना,
खूब तुम जगाना।
जागने और जगानेसे ही तो,
घर 'सावधान होता' है अपना।
खूब तुम पढ़ना,
खूब तुम लिखना।
पढ़-लिखकर ...घर का नहीं !
पर नाम उँचा करना खुदका अपना।
पर नाम उँचा करना खुदका अपना।
और कुछ नहीं चाहिए बस …
खूब तुम रोना,
खूब तुम रोना,
खूब तुम हसना।
बेटी …
जिसभी घर जाओगी,
जिसभी घर जाओगी,
घर लगेगा अपना।
-संकेत अशोक थानवी ॥३०/अप्रैल/१४॥
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