Nazar...(नज़र …)
नज़र …
नज़र कहा है तू इन् रंगो मे ,
ढूंढता तुझे मैं इन् रंगीली हवाओ की तरंगो मे।
तरंग …
तरंग की तरह चल रहे हम।
हवाओ की तरह बह रहे हम।
किनारो की तरह भीग रहे हम।
भटके राह की तरह हर एकसे नज़र मिला रहे हम।
बाग़ मे किसी भँवरे की तरह फूलो के बीच लहर रहे हम।
लहर …
लहराते लहराते , भटक गए।
एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे जगह पहुंच गए।
जाके वहा पता चला की,
हर एक फूल को अपने भँवरे पेहेले ही मिल गए।
ये देख कर ,
हम तिसरे से दूसरी और दूसरी से पेहेले के लिए निकल गए।
निकलते हुए …
निकलते हए आया ये खयाल :
छूटी तो नहीं कोई ,एक बार ढूंढलू।
और फिर भी अगर नहीं मिले तो निगाहे तो सेकलु।
सिकती निगाहे,तपती धुपमे।
ढूढ़ती तुझे,अनेको रूपमे।
अनेको रूपमे …
और जब यह लगा की रूप मिल गया,
क्या कहे उसकी सहेलियों को ?
उसे तो पांच के बीच ,
और हमे अकेला छोड़ गए।
अकेले बैठे …
अकेले बैठे दूसरी के देखकर ,
लगा हमे वो रूप मिल गया।
पैर चलते गए ,निगाहे मिलते गए।
पैर चलते गए ,निगाहे मिलते गए।
हर घडी,हमारे रंग बदलते गए।
बदलते बदलते …
बदलते बदलते मैं वहा पहचा।
और उन् रंगोके बीच ,"रंग लगाऊ ?"
उन् कानो से पूछा।
पूछने …
पूछाने के बाद हम तोह चुपथे।
पर उन गुलाबकी दो पंखहूदी ने 'हां' बोल दिया।
तो क्या ??
मैंने उसे और …उसने मुझे रंग दिया।
रंगते रंगते …
रंगते रंगते हो गए नौ से बारा।
मिलता रहा हमे एक दूसरे का सहारा।
सहारा …
सहारा न छूटेगा , वादा रहा।
ये रंग कभीना सूखेगा ,इन् नज़रो से वादा रहा।
ए नज़र मिल गयी तू इन् रंगो मे।
जो ढूंढ रहा था तुझे मैं ,
इन् रंगीली हवाओ की तरंगो मे।
-संकेत अशोक थानवी ॥१८/मार्च/१४ ॥(होली)
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