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Showing posts from September, 2014

Sukunse ( सुकूनसे )

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सुकूनसे सुगंध आ रही है आज-कल थोड़ी थोड़ी , इस रेगिस्तान मे किसी फूल से।  सूंघलू उसे मैं जो थोड़ा , तो कर जाती है अलग हमको हमहींसे।  देखा तो था एक बार ! हा …देखा तो था एक बार ! लग रही थी नन्हीसे कली, सोचा न था हो जाएगी इतनी सुन्दर , जैसे दिखती है वो मोरके पंखसे। हुस्न का दिदार तो होते ही रहता है दूरसे।  पिया करते है हम मटकीसे पानी , बिना छुए उसे …और बिना किसी के डरसे।  शर्त मत लगाना कभी !! नहीं …शर्त मत लगाना कभी !! डरते नहीं है हम कसी भी आपके शर्तसे।  नहीं तो बोलना पड़ेगा हमे नाम हुज़ूरसे।  क्यु ? लग गया न धक्का ज़ोरसे। ऐसे यार ना होते अगर , तो हम बात भी करलेते सुकूनसे।  सच कहु मैं … तो पेहेले बार महसूस कर रहे हैं हम खुदको मैदान मे कमज़ोरसे।  मार डालूँगा तुम्हे …हा मार डालूँगा तुम्हे  जो बात की तुमने इसकी किसी औरसे।  ये बदला समां क्यों लगरहा है, कहा से आ रही है ये रौशनी ? ये क्या देखतो नहीं रहे हम भूलसे।  ओए !! उठजा प्यारे , तू खूब सो लिया सुकूनसे।      खूब सो लिया सुक...

Ye Silsila...(ये सिलसिला..)

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ये सिलसिला… ये सिलसिला चलताही जाएगा।  ये तुझे सुबह सबसे पेहेले देखने का ख़्वाब, हररोज़ बढ़ता ही जाएगा। ये तेरे बात करने का तरीका वक़्तसे वक़्त तक बदलता ही जाएगा। पेहेले बात … पहेली मुलाकात तो अबतक याद है, हमने बो दिए थे बीज।  हम तो डाल रहे थे पानी, बना रहे थे नाते।  अब लगता है उन्ही पानीसे, उग रहे है काटे।  कही इन् काँटोंके पीछे दूरिया तो वजह नहीं ? फर्क तो सिर्फ नज़रियों का है। खुदको पूछोगे तो मिलूँगा वही। नहीं तो फिर सामने भी रहु अगर , तो दिखूँगा नहीं। कही इन् के पीछे , ये खून के नाते वाले तो नहीं। देखो क्या दिन आगया है, की इन् खून के नाते वालो को 'रिश्तेदार' कहते थे हमही। क्या इनके पीछे रिवाज़ों का फर्क नहीं? हंसी आती है अबतक! इक्कीसवी सदी मे हम है।  पर अब भी कुछ लोग कर रहे , तू-तू और मैं-मैं।  क्या इनके पीछे हैं आगे की सोच ? डरना मत इससे ये तोह है छोटीसी बात।  मेरी तो बस ये हैं सोच , की इन् पैरो मे चलने के लिए , और इन हाथो मे तुझे पकड़ने के लिए, कभी न आएगी मोच। फिर भी ...

Ek Samay...(एक समय...)

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एक समय… एक समय होता था।  जब हम जैसे मिटटी को , उन्होंने मटको मे घडोया था।  जब माँ-बाप और परिवार के सिवा , हमने और कुछ ना पाया था।  एक समय आया था।  जब हम जैसे किसीको , हमने दोस्त बनाया था।  होता वो हमारे पास ही , कितना भी उसको हसाया या रुलाया था।  और , अब एक समय आया हैं।  की शायद 'दुरीसे' दोस्त तो छोडो , कोई तो कभी-कभी परिवारसे भी, विश्वास न बना पाया है।  दिन भर बस खुदको, बुरे खयालो मे पाया है।  जागे हो फिरभी , खुदको अंदरसे मरा पाया है।  जैसे धुपके उजालेके बीच , बडासा काला बादल , अँधेरा करने आया है।  जल्द ही !! एक समय आएगा।  जब यही काला बादल ऊपर हो, और कोई अपना कोई प्यारा हाथमे दीपक थमा जाएगा।  ये अपना कोई प्यारा वही है , जो तुमको ये पढ़कर दिमागमे , सबसे पेहेले आएगा।  और वोही पूरा अँधेरा उजालेमे बदल के , होठो पे मुस्कुराहट दे जाएगा।  एक समय आएगा। एक समय आएगा।               ...

Thandi Hawao Ki Dhul...(ठंडी हवाओ की धूल...)

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ठंडी हवाओ की धूल... इन् ठंडी हवाओ ने धूलको उड़ाके , कुछ बातो की याद दिलाई।  जैसे … जैसे थी वो मेरे करीब आयी।  और शर्माके नज़र झुकाई।  उसने फिर मेरे साथ , रोज़ जैसे,शाम बिताई। पर एक बात उसने मुझे कभी न बताई। थी दिक्कत उसे सास लेनेमे। पर अच्छा लगता था उसे, मेरे साथ रहनेमे। फिर …फिर क्या ? फिर ग्रहण आया उसपे कही।  थी वो बिस्तर पे , पर घर के नहीं।  सुईया  लगी हुई हाथो मे जैसे , जैसे …काँटे लगे हो गुलाब मे कही।  कहा उसने , "माफ़ करना।  हर दुआ मे याद रखना। मैं ज्यादा बाकी नहीं।  पर रखना मुझे तुम्हारे दिल मे कही।" सुना उसने , "जनाब  …क्यों नहीं ?" अगले दिन वो उस शरीर को बाकी सबके लिए छोड़ गई।  पर  … पर मुझे इन ठंडी हवाओ के धूलमे मिल गयी। इन ठंडी हवाओ के धूलमे मिल गयी।                                                                   ...

Beti...Ye Hain 'Ghar Apna'(बेटी…ये है 'घर अपना')

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बेटी…ये है   ' घर अपना' बेटी … खूब तुम रोना , खूब तुम हसना।  हसने और रोनेसे की आवाज़ ही तो, घर 'लगता' हैं अपना।  खूब तुम बिखेरना , खूब तुम समेटना।  बिखेरने और समेटनेसे ही तो, घर 'बनता' है अपना। खूब तुम खाना, खूब तुम गिराना। खाने और गिरानेसे ही तो, घर 'भरता' है अपना। खूब तुम दौड़ना, खूब तुम कूदना। दौड़ने और कूदनेसे ही तो, घर 'सजता' है अपना। खूब तुम चलना, खूब तुम रुकना। चलने और रुक्नेसे ही तो, घर 'आगे बढ़ता' है अपना। खूब तुम जागना, खूब तुम जगाना। जागने और जगानेसे ही तो, घर 'सावधान होता' है अपना। खूब तुम पढ़ना, खूब तुम लिखना। पढ़-लिखकर ...घर का नहीं ! पर नाम उँचा करना खुदका अपना। और कुछ नहीं चाहिए बस … खूब तुम रोना, खूब तुम हसना। बेटी … जिसभी घर जाओगी, घर लगेगा अपना।                                            -संकेत अशोक थानवी ॥३०/अप्रैल/१४॥

Nazar...(नज़र …)

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नज़र … नज़र कहा है तू इन् रंगो मे , ढूंढता तुझे मैं इन् रंगीली हवाओ की तरंगो  मे।  तरंग  …  तरंग की तरह चल रहे हम।  हवाओ की तरह बह रहे हम।  किनारो की तरह भीग रहे हम।  भटके राह की तरह हर एकसे नज़र मिला रहे हम।  बाग़ मे किसी भँवरे की तरह फूलो के बीच लहर रहे हम।  लहर  … लहराते लहराते , भटक गए।  एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे जगह पहुंच गए।  जाके वहा पता चला की, हर एक फूल को अपने भँवरे पेहेले ही मिल गए।  ये देख कर , हम तिसरे से दूसरी और दूसरी से पेहेले के लिए निकल गए। निकलते हुए  …  निकलते हए आया ये खयाल : छूटी तो नहीं कोई ,एक बार ढूंढलू।  और फिर भी अगर नहीं मिले तो निगाहे तो सेकलु। सिकती निगाहे,तपती धुपमे।  ढूढ़ती तुझे,अनेको रूपमे। अनेको रूपमे  … और जब यह लगा की रूप मिल गया, क्या कहे उसकी सहेलियों को ? उसे तो पांच के बीच , और हमे अकेला छोड़ गए।  अकेले बैठे  … अकेले बैठे दूसरी के देखकर , लगा हमे वो रूप मिल गया।  पैर चलते गए ,निगाहे ...