Kal aaj aur kal (कल , आज और कल)
कल , आज और कल
सिर्फ मेरी आपकी नहीं दोस्तों ,
शायद ये घर घर की कहानी हैं।
दादा बैठे सामने घरमे ,
वो शान है घरकी बात सबने मानी है।
बैठे हो बेटा-पोता किधरभी ,
रखता वो सबकी कोतवलसी निगरानी है।
कभी कभी इन् सबके बीच ,
करते वो सबपे अपनी 'दादा'गीरी वाली मनमानी है।
मिले है कइयोंसे अस्सी साल मे ,
आज मिलती सबकी सलामी है।
पिता…
पिता देखते है घरका मजमा ,
वो घरमे सबसे ज्ञानी है।
आता उन्हें बड़ी-बड़ी मुसीबतको ,
जादुई तरीकेसे छुपानी है।
पुल है घरके वो अभी ,
जिसके एक छोर पर नयी और दूसरे पर चीज़े पुरानी हैं।
संभाला है दादा का कारोबार ,
बात सिर्फ बेटे की नहीं पर बड़ोकी मानी है।
मेरा तो है ये मानना …
की कारोबार और परिवार साथ हो अगर ,
तो जैसे बारूदके साथ चिंगारी है।
संभाला ना जाए ढंगसे ,
तो सिर्फ खुदको तो क्या सबको होती हानी है।
पर अगर हो सहीसे इस्तमाल इसका ,
तो होती रोज़ दीवालीवाली आतिशबाज़ी है।
सब पूछे मुझे ज़िंदगी मे क्या क्या चीज़े पानी है।
क्या पाना ये नहीं पता मुझे ,
पर पता है की बीस साल बाद
कोनसी एक बात मुझे खुदको ना दोहरानी है।
वो एक बात ये
" समझ पाता जबतक मैं अपने पिता को ,
सामने खड़ी ये मुझसे नाराज़ बेटे की बढ़ती जवानी है"
ये है मेरे आँखोसे देखी कल , आज और कल की कहानी है।
- संकेत अशोक थानवी ॥ १०/जुलाई/२०१५ ॥
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