ज़िन्दगी | Zindagi

ज़िन्दगी



मानसिकता से तेज़ मापदंड बदले।
मुर्ख अगले दिन विद्वान् सा उभरे।
हर क्षण सही-गलत की लड़ाई।
पूर्ण सत्य ने ली विदाई।

पीछे गर्दन न मुड़ती।
सामने वालो से होड़ न रूकती।
अंतिम इनाम नहीं इसमें... ये दौड़ न थमती।

पतले रास्ते में बढ़ती भीड़। 
एक दूसरे से बढ़ती चीड़।
खुद है खाली।
भरी दिखे दूसरे की थाली।

कुछ दौड़कर थक जाते।
कुछ धीमे धीमे कदम बढ़ाते।
कुछ खुश होकर न मुस्कुराते।
कुछ नाराज़ होकर जश्न मनाते।

सीधे चलते चलते गोल घुमाती। 
आगे बढ़ते बढ़ते पीछे छोड़ जाती।
जाने-अनजाने में ज़िन्दगी मुर्ख बनाती। 

- संकेत अशोक थानवी

Photo by Adrian Swancar on Unsplash

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