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सम्मान (samman)

सम्मान  जिस गली में भेड़िये हो, उसमे क्या डर के आगे जीत है? तन-धन जो भक्ष्ते, वो किसी को न बक्शते। लार टपकती उनसे टप-टप, दिल घबराता हमारा धग-धग। क्या मैं आज किसीका शिकार हूँ? काम-क्रोध-लोभ-मद-मोह-मत्सर का कौन त्याग करे? दूसरे के जीवन का हम स्वार्थी क्या सम्मान करे? शिकार जो मैं आज हूँ, कल शायद भेड़िया। अचल शिला नहीं हम कोई, समय भाति बहते रूप है।  विनाश काले विपरीत बुद्धि। दूसरे पे ऊँगली उठाकर, खुदके मानक गिरा दिए।  - संकेत अशोक थानवी || ३०/११/२०१९ || 

शायद मैं भूल गया | Shayad mein bhul gaya

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भूल गया शायद मैं भूल गया। किसीके सिर्फ ख्याल से दुःख भूलना भूल गया। शोर भरा काम, तुम्हारे याद से आराम। बड़ी कुर्सी पे बैठ, छोटी बाते भूल गया। अलग ही नूर तुम्हारे चहरे पे, हमेशा। तुम्हे ये मुस्कुराकर बताना भूल गया। समय की ट्रैन में बैठ दिल दर-दर भटकता। किसी स्टेशन पे उतर, तुमसे मिलाना भूल गया। तारो को ताकता मैं, दिल में अँधेरा। चाँद पर बैठ, दिल में दीप जलना भूल गया। खाली दिन का भार बड़ा। खिड़की पे बैठ, बारिश में, साथ चाय बाटना भूल गया। छोटीसी उम्र मेरी, कितना ही तुम्हे जाना। यादो की किताब के पन्ने पलटना भूल गया। शायद, अब किसीको अपना बनाना भूल गया। - संकेत अशोक थानवी || १०/ अक्टूबर/ २०१९  ||  ---------------------------------------- [Pic Credits: ‎Nanthini Vayapuri‎ ]

ज़िन्दगी | Zindagi

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ज़िन्दगी मानसिकता से तेज़ मापदंड बदले। मुर्ख अगले दिन विद्वान् सा उभरे। हर क्षण सही-गलत की लड़ाई। पूर्ण सत्य ने ली विदाई। पीछे गर्दन न मुड़ती। सामने वालो से होड़ न रूकती। अंतिम इनाम नहीं इसमें... ये दौड़ न थमती। पतले रास्ते में बढ़ती भीड़।  एक दूसरे से बढ़ती चीड़। खुद है खाली। भरी दिखे दूसरे की थाली। कुछ दौड़कर थक जाते। कुछ धीमे धीमे कदम बढ़ाते। कुछ खुश होकर न मुस्कुराते। कुछ नाराज़ होकर जश्न मनाते। सीधे चलते चलते गोल घुमाती।  आगे बढ़ते बढ़ते पीछे छोड़ जाती। जाने-अनजाने में ज़िन्दगी मुर्ख बनाती।  - संकेत अशोक थानवी Photo by  Adrian Swancar  on  Unsplash

वो | vo

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वो   हत्यारा उसी का ढोंगी सेवक बन जाएगा।  इतिहास बदलने का इतिहास वो फिरसे दोहराएगा।  मनोरंजन की आड़ में हमारे विचार भ्रमित कर बदल जाएगा। हमे आपस में लड़ाकर वो मलाई ले जाएगा।  लगाकर आसान क़र्ज़ की लत, वो ज़मीन-धन-सोच-शांति सब ले जाएगा। पैसे बचाने से वंचित रख वो हमे दबाएगा।  कम कमाई, मेहेंगी पढाई और छोटी नौकरी के बिच कौन दिमाग चलाएगा। आलोचक और नए प्रतिदंद्वी को कोई मंच न मिल पाएगा। कली बन वो घर में घुस धीरे-धीरे ज़हर रूप दिखाएगा। विकल्प तय करने वाला, खेल शुरू हो ने से पहले जीत जाएगा। राज चलने वालो की  वो  बोली अक्सर लगाएगा। कभी-कभी एक सिर दूसरे सिर को जान-बूझकर अच्छा बनाएगा। ये होता था, होता है और, शायद, होता रहेगा।  छोटे-बड़े अनेको सिर वाला साँप, एक-एक कर हमे डस जाएगा। ये न कोई एक आदमी।  आदमी तो सिर्फ है एक चेहरा।  चेहरा जो बना रहे वो विष भरे प्राणी। गली से लेकर देश-दुनिया तक चेहरे की दुकानों का डेरा। - संकेत अशोक थानवी || ३१/१२/२०१८ ||  ----- Photo by...