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अपने सवालोवाले डेस्क से बहार देखकर,
मैं जबसे नाख़ून चबा रहा।
खुले आसमान को ताकते,
दिमाग में खुदको
अमिताभ,
मधुबाला,
तो कभी, गुलज़ार बना रहा।
बंद स्क्रीन को देखा मुड़के,
वो मेरा असली चेहरा दिखा रहा।
लंच टाइम होने वाला हैं,
भरे टेबल्सपर खोकली स्माइल दिखने का वक़्त आ रहा।
अजीब हालात है ये,
ऐसे गीत हर कोई गन-गुना रहा।
ख्वाबोका अपना एल्बम बनाने निकले थे सब,
किसी गाने का एक हिस्सा भी, कोई न गए रहा।
सुबह हो गयी यारो,
ये हकीकतका अलार्म मेरी नींद उदा रहा।
शर्ट-सूट-शूज में तैयार,
मैं अरमानो को कुचलकर
झूटी मंज़िल चढ़ने जा रहा।
संकेत थानवी
०६/०३/२०१८
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