भ्रम ( bhram)



भ्रम 

पैदल जा रहा था मैं सीधे रस्ते ,
अगल-बगल खचाखच भरे मैदान दिखे।

एक-से-एक भव्य सजावट ,
नारोने-भाषाणोंए एक तरफ खींच लिया मुझे। 

सुन रहा था मैं गौर से ,
मेरा इतिहास मुझे अब पता चला। 

तंज-व्यंग पे हसी नहीं रुक रही थी ,
उनके वाक्य चिपक गए दिमाग में। 

सौभाग्य था मेरा जो मैं आया इधर ,
सड़क के पार वाले मैदानमें तो सारे मुर्ख है बैठे। 

कार्यक्रम ख़त्म हुआ नारो के साथ ,
ऊर्जा भर गयी मुझमे , अब मुख्यधारा का हिस्सा जो हूँ। 

आखरी में निकला सबसे ,
दूर-दूर तक कोई नहीं। 

दो मुठ्ठी अनाज लेने निकला था ,
अब तो अँधेरा हो गया। 

सारे पैसो से मैंने ये रंग-बिरंगी किताब खरीदी ,
तीन दिनसे भूके हमारे अनपढ़ परिवार को ये किताब कैसे खिलाऊ मैं। 

आ रहा था मैं वापिस रोते-भिलकते ,
रुक गया मैं एक अद्भुत नज़ारा देख कर। 

दोनों मंचो के अभिनेता को देखा मैंने ,
एक दूसरे को राजभोग खिलाते। 

- संकेत अशोक थानवी || १३/०१/१८  || 

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