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Leher | लहर

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लहर ए लहर! बता मुझे मेरा रास्ता कहा है। इस किनारे का पता तूने ढूंढा कहा है ? अनेको समंदर है तैरने के लिए, इस समंदर से तेरा लगाव क्या है ? तू, कभी उफनता है... कभी सिमटता हैं।  फिर भी, एक किनारे को इतनी बार कैसे याद कर लेता है ? मुझे देखो, हाथोसे बटन दबाकर मेरा दिमाग खुदको हकीकत से दूर कर लेता है। मैं भी कभी याद रखता था खुदके सपने। अब पता नहीं कबसे मेरा दिमाग खुदको इतना बेवक़ूफ़ बना लेता है ? तूने देखे कई बवंडर। तूने पार किया ये विशाल समंदर।  तू डगमगाके भी बिखरता कैसे नहीं ? तू है मेरा साथी।  बता मैं कमज़ोर नहीं हो कर भी, मज़बूत क्यों नहीं ? - संकेत अशोक थानवी || १४/०९/२०१८ ||  Photo: [ Photo by  Dhaval Parmar  on  Unsplash ]

ज्ञानम परमं बलम - Jñānam Param Balam

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ज्ञानम परमं बलम  ज्ञानम परमं बलम की सीख मुझे जो दे गया, पूछुं उसे आज मैं, सिक्का किताब से भारी कैसे हो गया? सरस्वती मंदिर का तेज शायद आज कम हो गया, छात्र-शिक्षकों, उसपर तराशे हस्तियों को देखो गौर से, और बताओ मुझे, उन महान विचारों को क्या आज हो गया? उन चारों घड़ियों के बीच अन्तर आज ख़त्म हो गया, क्लॉक टॉवर की ऊंचाई संभालना जरुरी, मगर बड़ों-बच्चों को साथ आने में क्या आज हो गया? अनेकों ज़िन्दगी भर के रिश्ते हर कोई वहाँ बना गया, अदभुत विशाल है ये परिवार, आज कौन इसे डरा गया? समन्दर प्रदर्शन के भावनाओं का, किनारे पर यहां आने वालों का भविष्य, छात्र-शिक्षकों, तुम सब हो मौसम इस घड़ी तूफान नहीं, प्यार की मिसाल बन जाए, बना दो ऐसा दृश्य। - - - - - संकेत थानवी 2013A3PS204P BITSian हमेशा || ०८/०४ /२०१८  ||

चाय - Chai

चाय बीत जाती है ये रात, तुझ जैसे चाँद को समय के समंदर में ताकते। सिर्फ हमारे उफनती लेहेरो की आवाज़ रह जाती है, अमावस की ख़ामोशी भरी रात में। शर्म की सुखी रेत में, थे हमारे पैर धसे। निशान भी नहीं अब तो कही, समय की लेहेरो में अब हम फसे। मुरझाते-खिलते रहे हमारे इरादे, चाँद ढलते ढलते। बिन सोए एक रात में अनेको सपने जी लिए, एक दुसरो के तारो में खुदको गिनते गिनते। चाँद - तारे छुप गए, ले रहे हम प्याले से चुस्की। कड़क चाय और हमारी गर्माहट के बिच, मर्जी चलेगी किसकी ? - संकेत थानवी || ०२/०४/१८  || Chai Beet jaati hai ye raat, tujh jaise chaand ko samay ke samandar mai taakte. Sirf humare ufanti lehero ki aawaz reh jaati hai, amavas ki khamoshi bhari raat mai. Sharm ki sukhi ret mai, the humare paair dhase. Nishan bhi nahi ab toh kahi, samay ki lehero mai ab hum faase. Murjhate-khilte rahe humare irade, chand dhalte dhalte. Bin soye ek raat mai aneko sapna jee liye, ek dusre ke taaro mai khudko ginte ginte. Chaand-taare ...

Desk - English

Desk Apne sawalowale desk se bahar dekhkar, main jabse naakhun chaba raha. Khule aasman ko taakte, dimag me khudko Amitabh, Madhubala, toh kabhi, Gulzar bana raha. Band screen ko dekha mudke, vo mera asli pareshan chehra dikha raha. Lunch time hone wala hai, bhare tables par khokli smile dikhane ka waqt aa raha. Ajeeb haalaat hai ye, aaise geet har koi gun-guna raha. Khwabo ka apna Album banane nikle the sab, kisi gaane ka ek hissa bhi, koi na gaa raha. Subh ho gayi yaaro, ye hakikat ka alarm meri neend uda raha. Shirt-suit-shoes me tayyar, main armano ko kuchalkar jhuti manzil chadhne jaa raha. Sanket Thanvi 06/March/2018

डेस्क - हिंदी

डेस्क अपने सवालोवाले डेस्क से बहार देखकर, मैं जबसे नाख़ून चबा रहा। खुले आसमान को ताकते, दिमाग में खुदको अमिताभ, मधुबाला, तो कभी, गुलज़ार बना रहा। बंद स्क्रीन को देखा मुड़के, वो मेरा असली चेहरा दिखा रहा। लंच टाइम होने वाला हैं, भरे टेबल्सपर खोकली स्माइल दिखने का वक़्त आ रहा। अजीब हालात है ये, ऐसे गीत हर कोई गन-गुना रहा। ख्वाबोका अपना एल्बम बनाने निकले थे सब, किसी गाने का एक हिस्सा भी, कोई न गए रहा। सुबह हो गयी यारो, ये हकीकतका अलार्म मेरी नींद उदा रहा। शर्ट-सूट-शूज में तैयार, मैं अरमानो को कुचलकर झूटी मंज़िल चढ़ने जा रहा। संकेत थानवी ०६/०३/२०१८

Uncertain - अनिश्‍चित

Uncertain - अनिश्‍चित footpath पर चलके , local train को पछाड़ू कैसे ? भीड़ में दबकर आगे बढ़ना आसान है।  अकेले मैं खुदको धक्का मारु कैसे ? समुन्दर की गहराइयो में, दीखते है उड़ते बादल मुझे। झोपड़ीमें tin  के बने छतो में , दीखते है उड़ते विमान मुझे।  ज़िन्दगी इन् रास्तो जैसी है।  कभी कभी flyover पे उप्पर।  तो कभी उसके आगे गड्डोमें अटक जाते है।  red signal कोई नहीं तोड़ता, सब ज़िन्दगी में चलान काटने से डरते है।  green signal पे सब मुस्काय , सब घोड़े एक ही race  में दौड़ते है।  इन् street-lights और चमकते buildings से आसमान छोटा मनो हो गया है।  इस शहर के ऊपर उठके देखो , आसमान में अनेको सितारे चमकते है।  हमसब खुदकी हकीकत में है जीते , divider वाले रस्ते पे हम rear-window ज़रा काम ही देखते है।  ऐसे तो मेरे photo  को है 10k likes, बगल से निकल जाऊ उनके , तो वो मुड़के भी न देखते है।  - संकेत अशोक थानवी || ०६/०२/२०१८  || 

भ्रम ( bhram)

भ्रम   पैदल जा रहा था मैं सीधे रस्ते , अगल-बगल खचाखच भरे मैदान दिखे। एक-से-एक भव्य सजावट , नारोने-भाषाणोंए एक तरफ खींच लिया मुझे।  सुन रहा था मैं गौर से , मेरा इतिहास मुझे अब पता चला।  तंज-व्यंग पे हसी नहीं रुक रही थी , उनके वाक्य चिपक गए दिमाग में।  सौभाग्य था मेरा जो मैं आया इधर , सड़क के पार वाले मैदानमें तो सारे मुर्ख है बैठे।  कार्यक्रम ख़त्म हुआ नारो के साथ , ऊर्जा भर गयी मुझमे , अब मुख्यधारा का हिस्सा जो हूँ।  आखरी में निकला सबसे , दूर-दूर तक कोई नहीं।  दो मुठ्ठी अनाज लेने निकला था , अब तो अँधेरा हो गया।  सारे पैसो से मैंने ये रंग-बिरंगी किताब खरीदी , तीन दिनसे भूके हमारे अनपढ़ परिवार को ये किताब कैसे खिलाऊ मैं।  आ रहा था मैं वापिस रोते-भिलकते , रुक गया मैं एक अद्भुत नज़ारा देख कर।  दोनों मंचो के अभिनेता को देखा मैंने , एक दूसरे को राजभोग खिलाते।  - संकेत अशोक थानवी || १३/०१/१८  ||