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Showing posts from June, 2017

जननी (Janani)

जननी  पहलेसे लिखे इतने खबरों - लेखो - कविताओ के बिच, मेरी इस कविता से क्या हो जाएगा ? जहा शक्ति मर्दानगी में नापते है , 'शक्ति' एक स्त्रीलिंग है , कौन उन्हें बताएगा ? लोगोकी गलती नहीं जब शब्द ही बदल जाए , बहार निकलने को डर रही तू जिस रात में , उसे निशा भी कहते , ये कौन याद दिलाएगा ? मर्दानगी की हुंकार देने वाले देख कितना डरते तुझसे , मार देते तुझे जन्म के पहले, ऐसे में तेरा अस्तित्व कौन बचाएगा ? अन्न देने वाली धरती स्त्री है , शायद इसीलिए तुझे चूल्हा पकड़ाते , ज्वालामुखी और भूकंप भी है तुझमे , ये कौन उन्हें स्मरण कराएगा ? हरपल किसी द्रौपदी का चीरहरण हो रहा , लेकिन महाभारत कही नहीं। जब हो तेरे अपने रखवाले पांडव लड़ने के लिए शर्मिंदा , तो दुर्योधनसे कौनसा सखा कृष्ण तुझे बचाएगा ? जब है हैवानियत का तेजाब किसीकी सोच में गढ़ा , अनजानसा बनकर दिनभर स्कार्फ़से ढककर छुपके , हमला कबतक होने से रह जाएगा ? सफ़ेद दाढ़ी वाले ये झुर्री भरे  समाज की सोच को पुनर्जन्म देना जरुरी है अब।  सिर्फ...

तू क्या पा लेता ? (Tu kya paa leta ?)

तू क्या पा लेता ? थोड़ा रूककर आराम करके , ज़िन्दगी के इन् पहले पड़ावों में क्यों थका महसूस कर रहा ? बचपन से अभतक सारे इच्छा के बादल गुज़रते हैं उस चोटी से , कौन मुझे रोक रहा ? उस चोटी की कीमत पसीना है , तुझे अब पता चला।  ये कठोर उदास दिनों में , क्या ज़रूरी नहीं साथी ? ऐसे धूपभरे पथरीले चादवपे , क्यों ज़रूरी है सही साथी ? उसके हौसले डगमगाने पे , तुम्हारी हिम्मत थर-थराती।  दफ्तर में काम करते वक़्त , मेट्रो-लोकल में किताब पढ़ते वक़्त , चौराह पे ठहरते वक़्त , मोहल्ले से निकलते वक़्त , क्या कोई नहीं मिला तुम्हे सालोसे इन् राहो में? अकेले हो?.. ऐसा लग रहा , क्या अकेलापन भ्रम नहीं ऐसे चाड़व की राहो में? देख आसपास ये अनजाने पुराने पेड़ ,ये ठंडी हवा , ये उतरनेवालो की मुस्कराहट , सब यार है तेरे थकान भरे सारे कदमो में।  ऑफिस में लिफ्ट से ऊपर की मंज़िल पे जाते वक़्त , क्यों मैं घबरा रहा ? सामनेवाला मुझसे पहले चोटी ना पहुंच जाये , ये ख्याल क्यों मुझे सता रहा ? बोहोत ज्यादा सूकरक्षित है तू,  शांति रख और उदास हो ! अनेको चल चुके जिस रास्ते पे तू है...

सपनो का सागर(Sapno ka sagar)

सपनो का सागर आया इस आखरी मोड़तक कई दफा, पहले बार इतना निहार रहा।  पेड़ो से भरे इन् गलियों को दूर जाते देख मै, एक जम्बूरा, अपने यादो के वनमें इनके अंकुर सवार रहा।  मेरे जैसे रोज़ कितने जाते होंगे, ऐसे खचाखच भरे डुगडुगाती गाडीमें फसकर! शहरमें भरी थाली के सपने पुरे करने चले, गाओंके दो वक़्त की रोटीमें से अपना-अपना हिस्सा लेकर।  बचपनसे लेकर अभी स्टेशन तक सुन रहा, की उस शहर में विशाल-अनंत सागर है, सपनोका।  थोड़ी दिक्कत... और ज़िन्दगी भर आराम की मछली का सुख वाहा, इन् सपनो के मछवारोंसे भरी ट्रैन में, अपना मिलकरभी नहीं लगता अब परिचितसा।  उतरा नहीं मै, स्वागत किया मेरा शहर के इस बड़े प्लेटफार्म पे, किसी छोटे दिलवालेने धक्का देकर गिराके। जैसे तैसे बहार निकलकर देखा मैंने कुछको, खुदके बनाये, शायद झूठे, बादलोमे उड़ते।  सालो तक नज़रे टिकाके नावमें बैठा, इन् बैगोके वजन से नहीं लेकिन, आशाओ-आकांशाओ का ये बोझ उठाके। चिढ़कर कूदा मै उस मछली की झलक के लिए, काफी निचे जाकर मछली आराम की मिली मुझे हसते हुए।  वो मौत थी, मेरे जैसे ही इस अ...