Vartalaap(वार्तालाप)
वार्तालाप अ : क्यों दिखता नहीं तुझे अपनी खुदकी ज़िन्दगी के पार। कही स्वार्थ से जुड़े तो नहीं इसके तार। नादानी , प्यार , दोस्ती और दुश्मनी जैसी बाते है काफी सरल। मुश्किल बना दिया तूने , खुद्दारी में होके मगन। खुदकी किताब तुम खुद रंगते हो, इसे सुन्दर बनाना । कोई भी धब्बा एक पन्ने पर नहीं रुकता , क्या पता फिर ना मिले पछताने का बहाना। झरने की आवाज़ , फूल की खुशबू , फल की मिठास ,तारो की टिमटिमाना और हवा का कोमल स्पर्श , सब सामान है ये। भेदभाव ना कर किसी में भी , बुद्धि और इंद्र्यियो का क्या सही उपयोग है ये ? सबका भला चाहता हूँ मैं , इसीलिए शायद परमात्मा। मेरा ही नाम बेच बेच कर , तूने किया भलाई का खात्मा । - संकेत अशोक थानवी ॥११/१०/२०१६ ॥ ब : मेरी मनो तो स्वार्थ से कोई आत्मा न बच पाई। तुम्हारा स्वार्थ शायद इस दुनिया का भला , मेरा खुदकी कमाई। ये प्यार आदि को मैं नहीं मानता। इसी अविश्वास को जग खुद्दारी से जनता। रुकी कलम को चलाने ...